Be-Khudi Le Gayi Kahan Ham Ko
Dair Se Intezaar Hai Apna
देगी न चैन लज़्ज़त-ए-ज़ख़्म उस शिकार को
जो खा के तेरे हाथ की तलवार, जाएगा
क्या कहूँ तुम से मैं कि क्या है इश्क़
जान का रोग है बला है इश्क़
मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में,
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया।
मिरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
सुबह होती रही शाम होती रही
उम्र यूँ ही तमाम होती रही।
Gham Raha Jab Tak Keh Dam Mein Dam Raha
Dil Ke Jane Ka Nahayat Gham Raha
उनने तो मुझको झूंटे भी न पूछा एक बार
मैंने उसे हज़ार जताया, तो क्या हुआ
मेरे रोने की हक़ीक़त जिसमें थी
एक मुद्दत तक वह काग़ज नम रहा
मत सहल हमें जानो फिरता है फ़लक बरसों,
तब ख़ाक के पर्दे से इंसान निकलते हैं।
‘मीर’ हम मिल के बहुत ख़ुश हुए तुम से प्यारे
इस ख़राबे में मिरी जान तुम आबाद रहो
बे-ख़ुदी ले गई कहाँ हम को
गलियों में अब तलक तो, मज़्कूर है हमारा
अफ़सान-ए-मुहब्बत, मशहूर है हमारा
पैमाना कहे है कोई मय-ख़ाना कहे है
दुनिया तिरी आँखों को भी क्या क्या न कहे है
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है
‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है
क्या जानूँ चश्म-ए-तर से उधर दिल को क्या हुआ,
किस को ख़बर है मीर समुंदर के पार की।
शाम से कुछ बुझा सा रहता हूँ
दिल हुआ है चराग़ मुफ़्लिस का
बारे दुनिया में रहो ग़म-ज़दा या शाद रहो
ऐसा कुछ कर के चलो याँ कि बहुत याद रहो
पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है,
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है।
इश्क़ इक ‘मीर’ भारी पत्थर है
कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है
‘मीर’ साहब तुम फ़रिश्ता हो तो हो
आदमी होना तो मुश्किल है मियाँ
चश्म हो तो आईना-ख़ाना है दहर
मुँह नज़र आता है दीवारों के बीच
Phirte Hai Mir Khwar Koi Pochta Hi Nahi
Is Aashqi Main Tu Izat Saadat Bi Gayi
अब कर के फ़रामोश तो नाशाद करोगे
पर हम जो न होंगे तो बहुत याद करोगे
Iqrar Mein Kahan Hai Inkar Ki Se Sorat
Hota Hai Shoq Ghalib Us Kin Ahi Nahi Par
होगा किसी दीवार के साए में पड़ा ‘मीर’
क्या काम मोहब्बत से उस आराम-तलब को
Rah Dor Ishq Mein Rota Hai Kya
Aage Aage Dekhiye Hota Hai Kya
Nazki Us Ke Lab Ke Kia Kehye
Pankhari Ik Gulab Ki Si Hai